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अकेला



जहन कि  गहराइयों में जाने कितने घर कर बैठे है,
 कितने आस पास घूमते है कितने दूर तक देखते है।
 कैसे तो हम अकेले इस मेले के कोने में रहते है
 कैसे हम ही खिलते इस भीड़ से चिपके बैठे है ।।


कही कोई थक हार कर वरदान में एकांत मांगता है
कोई सब कुछ पाकर भी अभिशाप तन्हाई  पाता है ।
कैसे तो हम अकेले इस मेले के कोने में रहते है
कैसे हम ही अलबेले सब हमसे मिलते चलते है ।।



कही कोई मन से हारा तन्हाई से भागा जाता है
कोई जीत की आस लिए तन्हाई ओढ़े जाता है ।
होती कहाँ तन्हाई भीड़ में फिर भी इनको दिख जाती है
क्या किसी का न हो होना ही  अकेले होना होता है ?

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